उत्तर प्रदेश । प्रदेश के पूर्वी ज़िलों की 29 लोकसभा सीटों वाला पूर्वांचल हर बड़े चुनाव में अपने भौगोलिक दायरे से आगे बढ़कर नतीजों और राजनीतिक समीकरणों को प्रभावित करता रहा है. एक और ख़ास बात ये है कि पूर्वांचल की राजनीति में संगठित माफ़िया सरगनाओं का दबदबा रहा है.
#पूर्वांचल का माफिया मैप
1980 के दशक में गोरखपुर के 'हाता वाले बाबा' के नाम से पहचाने जाने वाले हरिशंकर तिवारी से शुरू हुआ राजनीति के अपराधीकरण का यह सिलसिला बाद के सालों में मुख़्तार अंसारी, बृजेश सिंह, विजय मिश्रा, सोनू सिंह, विनीत सिंह और फिर धनंजय सिंह जैसे कई हिस्ट्रीशीटर बाहुबली नेताओं से गुज़रता हुआ आज भी पूर्वांचल में फल-फूल रहा है.
अपने साथ-साथ अपने परिजनों के लिए भी पंचायत-ब्लॉक कमेटियों से लेकर विधान परिषद, विधान सभा और लोकसभा तक में राजनीतिक पद सुनिश्चित कराने वाले पूर्वांचल के बाहुबली नेता अपने-अपने इलाके में गहरी पैठ रखते हैं.
गोरखपुर, कुशीनगर, महराजगंज से शुरू होने वाला राजनीतिक बाहुबल का यह प्रभाव, आगे फ़ैज़ाबाद, अयोध्या, प्रतापगढ़, मिर्ज़ापुर, ग़ाज़ीपुर, मऊ, बलिया, भदोही, जौनपुर, सोनभद्र और चंदौली से होता हुआ बनारस और प्रयागराज तक जाता है.
#कैसे पांव पसारे माफ़िया ने
उत्तर प्रदेश में संगठित अपराध से लड़ने के लिए ख़ास तौर पर गठित की गई स्पेशल टास्क फ़ोर्स (एसटीएफ़) के आईजी अभिताभ यश बताते हैं, "संगठित अपराध में शामिल होना तो माफ़िया होने की पहली शर्त है. फिर स्थानीय राजनीति और प्रशासन में दख़ल रखना और ग़ैर-क़ानूनी काले धन को क़ानूनी धंधों में लगाकर सफ़ेद पूंजी में तब्दील करना दूसरी दो ज़रूरी बातें. जब यह तीनों फ़ैक्टर मिलते हैं, तभी किसी गैंगस्टर या अपराधी को 'माफ़िया' कहा जा सकता है".
2007 में उत्तर प्रदेश के दुर्दांत माफ़िया ददुआ का एनकाउंटर करने वाले अमिताभ माफ़िया की राजनीतिक भूमिका पर कहते हैं, "अगर किसी एक पार्टी को पूर्ण बहुमत मिलता है, तो माफ़िया की भूमिका काफ़ी सीमित हो जाती है. लेकिन बिखरे हुए नतीजे आने पर इनकी भूमिका अचानक बढ़ जाती है क्योंकि इनका असर भले ही क्षेत्रीय हो लेकिन राष्ट्रीय चुनाव में अक्सर ऐसे स्थानीय प्रत्याशी बड़ी तस्वीर की दिशा तय करने में निर्णायक भूमिका निभा जाते हैं."
आज राजनीति और व्यापार तक पांव पसार चुके पूर्वांचल के इस गैंगवार की शुरुआत सन 1985 में ग़ाज़ीपुर ज़िले के मुढ़ीयार गांव से हुई थी. यहां रहने वाले त्रिभुवन सिंह और मनकु सिंह के बीच शुरू हुआ ज़मीन का एक मामूली विवाद देखते ही देखते हत्याओं और गैंगवार के एक ऐसे सिलसिले में बदल गया जिसने पूर्वांचल की राजनीतिक और सामाजिक तस्वीर को हमेशा के लिए बदल दिया.
पूर्वांचल में संगठित अपराध को चार दशकों से कवर कर रहे वरिष्ठ पत्रकार पवन सिंह मानते हैं कि पूर्वांचल में गैंगवार का शुरू होना एक संयोग था.
अब तक 1990 का दशक शुरू हो चुका था और ग़ाज़ीपुर के एक गांव का विवाद एक बड़े गैंगवार में तब्दील हो चुका था. पवन आगे बताते हैं, "माफ़िया सरगना रहे साहिब सिंह ने चुनाव लड़ने के लिए आत्मसमर्पण किया. बनारस कोर्ट में उनकी पेशी थी, अदालत के सामने पुलिस वैन से उतरते हुए उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गई. बदले में पुलिस कस्टडी में अस्पताल में भर्ती साधू सिंह की गोली मारकर हत्या कर दी गई.
इस गैंगवार से दो बड़े सरगना उभरे,
मुख़्तार अंसारी और बृजेश सिंह.
#ऐसे काम करते हैं बाहुबली
स्पेशल टास्क फ़ोर्स के आईजी अमिताभ यश बताते हैं, "ज़िला पंचायत से लेकर ब्लॉक अधिकारियों तक, निर्वाचन आधारित हर स्थानीय प्रशासनिक संस्था पर उस इलाक़े के माफ़िया के परिजनों और चेलों का क़ब्ज़ा होता है. माफ़िया का डर ऐसा है कि पत्रकार इनके बारे में कुछ नहीं लिखते, या फिर उनके मनमाफ़िक लिखते हैं."
#90 का दशक
1990 का दशक आते-आते पूर्वांचल के माफ़िया ने ख़ुद को राजनीति में लगभग स्थापित कर लिया. पवन बताते हैं, "मुख़्तार के बड़े भाई अफ़जाल अंसारी पहले से ही राजनीति में थे इसलिए मुख़्तार के लिए राजनीति में आना आसान था. बृजेश ने अपने बड़े भाई उदयनाथ सिंह उर्फ़ चुलबुल को राजनीति में उतारा. पहले उदय नाथ सिंह विधान परिषद के सदस्य रहे और उनके बाद उनके बेटे और बृजेश के भतीजे सुशील सिंह विधायक हुए".
दूसरी तरफ, एक-दो अपवादों को छोड़कर अफ़जाल गाज़ीपुर से और मुख़्तार मऊ सीट से लगातार विधानसभा चुनाव लड़ते और जीतते रहे. मुख़्तार और बृजेश आज जेल में हैं लेकिन दोनों ही निर्वाचित जन प्रतिनिधि हैं. बृजेश विधान परिषद के सदस्य हैं, उनके भतीजे सुशील चंदौली से भाजपा के विधायक हैं.
#मुख़्तार मऊ सीट से विधायक और उनके भाई अफ़जाल अंसारी गाजीपुर से सांसद हैं
एसटीएफ़ के एक वरिष्ठ अधिकारी बताते हैं, "बिना राजनीतिक शह के माफ़िया नहीं पनप सकता. राजनीति में जाने का एक कारण अपने व्यापारिक निवेशों को सुरक्षित करना, उन्हें बढ़ाना और राजनीतिक पार्टियों में अपना दख़ल बढ़ाना भी होता है, माफ़िया चाहता है कि एसटीएफ़ को डराकर रखे. उन्हें लगता है कि अगर चुनाव जीत गए तो एसटीएफ एनकाउंटर नहीं करेगी या नहीं कर पाएगी".
#माफ़िया को राजनीतिक संरक्षण
पवन एक घटना याद करते हैं, "भदोही में एक चुनावी रैली में मुलायम भाषण दे रहे थे. मायावती की सरकार थी और पुलिस भदोही के विधायक और माफ़िया सरगना विजय मिश्रा को खोज रही थी. विजय मिश्रा रैली में पहुंचे, स्टेज पर जाकर मुलायम को बताया कि पुलिस पीछे पड़ी है. भाषण ख़त्म होते ही मुलायम ने पुलिस आधिकारियों से कहा कि विजय उन्हें हेलिकॉप्टर तक छोड़ने जाएंगे, इसके बाद विजय उसी हेलिकॉप्टर से मुलायम के साथ उड़ गए. मुलायम का संदेश साफ़ था कि हम अंत तक अपने आदमी के साथ खड़े रहेंगे."
ज़्यादातर माफ़िया अपनी धर्मपरायण छवि का प्रचार करते हैं. वरिष्ठ पत्रकार उत्पल पाठक बताते हैं, "बृजेश जेल में भी रोज़ सुबह उठकर गीता पढ़ते हैं और मुख़्तार नमाज़. चुनाव जीतने के लिए यज्ञ करवाना, पंडितों के कहने पर उँगलियों में रत्न पहनना, हफ़्ते के दिनों के हिसाब से कपड़ों के रंग चुनना- यह सब यहां के निर्वाचित बाहुबलियों की जीवन शैली का हिस्सा है".
इसके साथ ही पूर्वांचल के माफ़िया के नियमों में ड्रग्स और हथियारों का कारोबार न करना, पत्रकारों और वकीलों को न मारना, शराब और नशे से दूर रहना, औरतों और बूढ़ों पर हमले न करना शामिल है.
इसी तरह कुछ और नियम हैं, जैसे लड़कियों के साथ छेड़छाड़ न करना, प्रेम विवाह को अक्सर बाहुबलियों का संरक्षण मिल जाता है. उत्पल बताते हैं, "एक श्रीप्रकाश शुक्ला थे जो लड़कियों के चक्कर में मारे गए. उनके एनकाउंटर से भी यहां के बाहुबलियों ने सबक़ लिया और फिर कभी कोई ऐसा मामला सामने नहीं आया."
साथ ही, फिटनेस और सेहत पर बाहुबलियों का विशेष ध्यान रहता है. जो निर्वाचित बाहुबली जेल में बंद हैं वो भी सुबह उठकर जेल के मैदान के ही चक्कर लगाते हैं. फल और कम तेल की चीज़ें ज़्यादा खाते हैं.
बनारस के पुराने क्राइम रिपोर्टर मुन्ना बजरंगी के बारे में अक्सर यह कहते हैं कि वह नए आदमी को अपनी गैंग में लेने से पहले उनकी परीक्षा लिया करता था. परीक्षा होती थी सिर्फ़ दो गोली में हत्या करके वापस आना. उत्पल जोड़ते हैं, "पूरब का एक आम शूटर भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बड़े गैंगस्टरों से ज़्यादा बढ़िया निशाना लगाता है और लंबे समय तक टिका रहता है. यहां एके- 47 की गोलियां बर्बाद करने की नहीं, कम-से-कम गोलियों में काम ख़त्म करने की ट्रेनिंग दी जाती है."
#ये हैं एसटीएफ़ की सीमाएं
एक वरिष्ठ आइपीएस अधिकारी बीबीसी से बातचीत में कहते हैं, 'सहर' जैसी फ़िल्मों में एसटीएफ का चित्रण देखकर लोग हमारे काम को सिर्फ़ 'सर्विलेंस' समझ लेते हैं जो कि सच से बहुत दूर है. दरअसल, हम अपनी इंटेलिजेंस सिर्फ़ सर्विलेंस से हासिल नहीं करते. हम ग्राउंड पर अपने सूत्र पैदा करने में समय, ताक़त और बुद्धि का निवेश करते हैं".
वे कहते हैं, "एसटीएफ राजनीतिक तौर पर सशक्त नहीं है इसलिए कई बार संगठित अपराध और माफ़ियाओं से जुड़ी बहुत सी जानकारी हम बाहर नहीं ला पाते क्योंकि जानकारी बाहर आने पर मुखबिर को ट्रेस कर लिए जाने का ख़तरा रहता है. एक आम एसटीएफ इंस्पेक्टर भी सैकड़ों राज़ अपने सीने में लिए दुनिया से चला जाता है, लेकिन सोर्स बाहर नहीं आने देता."
2000 के दशक में संगठित माफ़िया का केंद्र गोरखपुर से बनारस शिफ़्ट हुआ और उनकी कार्यप्रणाली में भी कई बड़े परिवर्तन आए. ज़मीन के विवाद से शुरू हुआ गैंगवार अब रेलवे और कोयले के टेंडरों की लड़ाई में तब्दील हो चुका था.
उनके काम के तरीक़े को समझाते हुए एसटीएफ़ के आईजी कहते हैं, "बनारस में आज भी मछली और टैक्सी स्टैंड के ठेके ज़िला पंचायत के ज़रिए क्षेत्र के एक बड़े माफ़िया के प्रभाव में ही तय होते हैं. गंगा की तेज़ धार में मछली पकड़ने की मज़दूरी पांच रुपए किलो मिलती है, और माफ़िया हर किलो पर 200 रुपए बनाता है."
#ऐसे शुरू हुआ सियासी सिलसिला
लंबे समय से बाहुबलियों पर नज़र रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार उत्पल पाठक कहते हैं, "इस सिस्टम की शुरुआत सबसे पहले इंदिरा जी ने की. उनके पास गोरखपुर में हरिशंकर तिवारी थे और सिवान-गोपालजंग के इलाक़े में काली पांडे जैसे लोग. बाद में मुलायम सिंह ने इसी सिस्टम को ज़्यादा व्यवस्थित कर दिया. 2000 के आसपास उन्होंने उन सभी बाहुबलियों की पहचान शुरू की जो 2 से 4 सीटों पर प्रभाव रखते थे. पूर्वी उत्तर प्रदेश को भौगोलिक खेमों को बांट कर उन्होंने एक रणनीति के तहत हर इलाक़े में अपने बाहुबली नेता खड़े किए."
उत्पल पाठक कहते हैं, "इसके बाद बसपा ने भी खुलकर बाहुबलियों को टिकट बांटना शुरू कर दिया. बाहुबली अपनी उगाही से चुनाव के लिए पार्टी फ़ंड का इंतज़ाम भी करते और साथ ही अपने डर और प्रभाव को वोटों में तब्दील कर चुनाव भी जितवाते."
मिर्ज़ापुर और बनारस जैसे शहरों में लंबे समय तक एसपी रहे एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी बीबीसी से बातचीत में कहते हैं, "पहले तो बंदूक़ की नोक पर टेंडर दिए-लिए जाते थे लेकिन अब जबसे ई-टेंडर का ज़माना आया है तो उन्होंने पढ़े-लिखे स्मार्ट लड़के ई-टेंडर के लिए रख लिए हैं."
पुलिस से लेकर माफ़िया तक ज़्यादातर लोग सुरक्षा कारणों से अपने नाम प्रकाशित नहीं होने देना चाहते. ऐसी ही एक बातचीत में लखनऊ में एक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक ने काफ़ी दिलचस्प बात बताई, "आज का बाहुबली तो नेताओं से भी ज़्यादा पेशेवर नेता है. वोटों के लिए वह जनता के पैर पकड़ने से लेकर तोहफ़े बांटने तक सब कर रहा है. आज पूर्वांचल की जनता डर से नहीं, उनके ग्लैमर से प्रभावित होकर उन्हें वोट देती है."
वरिष्ठ पत्रकार पवन सिंह कहते हैं, "पूर्वांचल के ग्रामीण इलाक़ों में आज भी मुख़्तार और विजय मिश्रा जैसों का ग्लैमर काम करता है. गाँव का आदमी सिर्फ़ इसी बात से ख़ुश हो जाता है कि बाबा 'दस गो गाड़ी लेके हमरा दुआरे पे आइल रहन'.
बाहुबलियों के कामकाज का तकनीकी विश्लेषण करने वाले, एसटीएफ़ के एक वरिष्ठ इंस्पेक्टर ने कागज़ पर चार्ट बनाकर समझाया, "सबसे पहले पैसा उगाही ज़रूरी है. इसके लिए माफ़िया के पास कई रास्ते हैं. जैसे कि मुख़्तार अंसारी टेलीकॉम टावरों, कोयला, बिजली और रियल एस्टेट में फैले अपने व्यापार के ज़रिए उगाही करते हैं".
वे बताते हैं, "बृजेश सिंह कोयला, शराब और ज़मीन के टेंडर से पैसे बनाते हैं. भदोही के विजय मिश्रा और मिर्ज़ापुर-सोनभद्र के विनीत सिंह भी यहां के दो बड़े माफ़िया राजनेता हैं. गिट्टी, सड़क, रेता और ज़मीन से पैसा कमाने वाले विजय मिश्रा 'धनबल और बाहुबल' दोनों में काफ़ी मज़बूत हैं. पांच बार विधायक रह चुके हैं. विनीत लंबे वक़्त से बसपा से जुड़े रहे हैं और पैसे से वह भी कमज़ोर नहीं हैं".
एसटीएफ़ के इंस्पेक्टर कहते हैं,"पूर्वांचल में आज करीब 250 के आसपास गैंगस्टर बचे हैं. इनमें से कुछ राजनीति में हैं और जो नहीं हैं वो आना चाहते हैं. इनमें से पांच हज़ार करोड़ रुपए से ऊपर की एसेट वैल्यू वाले 5-7 नाम हैं और 500 करोड़ से ऊपर की एसेट वैल्यू वाले 50 से ज़्यादा नाम. बाक़ी जो 200 बचते हैं, वो टॉप के 5 माफ़ियाओं जैसा बनना चाहते हैं".
कई एनकाउंटरों में शामिल रहे वरिष्ठ इंस्पेक्टर कहते हैं, "चुनाव में बाहुबली वोट देने और वोट न देने, दोनों चीज़ों के लिए पूर्वांचल में पैसा बंटवाते हैं. यह आम बात है कि आप घर पर ही उनसे पैसे ले लीजिए और ऊँगली पर स्याही लगवा लीजिए".
गोलीबारी और हत्याओं वाले गैंगवार को 'लगभग समाप्त' बताते हुए वह आगे कहते हैं, "2005 का कृष्णानंद राय हत्याकांड गोलीबारी का आख़िरी बड़ा मामला था. इसके बाद से यहां के सारे बड़े अपराधी अपनी आपराधिक पृष्ठभूमि की मदद से ही अपने व्यापार को बढ़ाने लगे और फिर पैसे को सुरक्षित करने के लिए राजनीति में आए".
रॉबिनहुड वाली छवि बनाने की कोशिश
वरिष्ठ पत्रकार उत्पल पाठक बताते हैं, "सभी बाहुबली अपने इलाक़े में होने वाली शादियों में लोगों की मदद करते हैं. ख़ास तौर पर ग़रीबों की बेटियों की शादी में तो ज़रूर. इसी तरह लोगों के मरने पर, लोगों के इलाज पर और कभी कभी तो यूं ही. मान लीजिए, अगर इलाक़े के दस लड़के बाहुबली के पैर छूने आए हैं तो आशीर्वाद में बाबा पांच-दस हज़ार रुपए पकड़ा देंगे. इसे स्ट्रैटीजिक इन्वेस्टमेंट कहते हैं".
लंबे समय तक बनारस में कार्यरत रहे रिटायर्ड पुलिस महानिदेशक प्रवीण सिंह उत्पल से सहमत हैं, "ज़्यादातर निर्वाचित माफ़िया अपनी रॉबिनहुड की छवि को पुख़्ता रखने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं. वह लोगों की मदद करके उनको अपनी छत्रछाया में रखते हैं और इस तरीक़े से अपने लिए एक ऐसा वोट बैंक तैयार करते हैं जो कई बार धर्म और जाति से परे भी उनका वफ़ादार रहता है."
अनुभवी डीजी राजेंद्र पाल सिंह कहते हैं, "अपराध एक ऐसा दलदल है जिसमें एक बार घुसने के बाद कई बार ख़ुद को ज़िंदा रखने के लिए अपराधी नए अपराध करता चला जाता है।
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रिपोर्ट: अमित कुमार सिंह
जर्नलिस्ट
a.singhjnp@gmail.com
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