"अवचेतन मन"
अंतर्मन की दुविधाओं से लड़ना मुझे खूब आता है। बाह्य जगत की जो उलझने हैं, अंतः मन ही सुलझाता है।।
पिजड़े में बैठे पक्षी को देख जगत यूं मुस्काता है। तोड़ बेड़ियां खोल परों को ,खुला आकाश उसे भाता है।।
सागर की जो धाराएं हैं ,उठ उठ फिर ज्यों-ज्यों गिरती हैं ,मन के अंदर भी आशाओं की, एक नदी ऐसी बहती है।।
अब न झुकोगी अब ना थमोगी ,मन यह मुझको समझाता है,पर जो संसार बुना है मैंने पार कहां उससे पाता है।।
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कंचन सिंह,फाइल फोटो |
लेखिका
कंचन सिंह
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